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छत्तीसगढ़

डेरी गड़ाई रस्म के साथ फागुन मंडई का आगाज

दंतेवाड़ा । बुधवार सुबह मांई दंतेश्वरी मंदिर के प्रवेश द्वार पर डेरी गड़ाई रस्म अदायगी हुई। डेरी गड़ाई रस्म के साथ ही ग्यारह दिनों तक चलने वाला दक्षिण बस्तर का प्रसिद्ध फागुन मंडई का आगाज भी आज से हो गया। डेरी गड़ाई रस्म को देखने सुबह मंदिर परिसर में श्रद्धालुओं की भारी भीड़ लगी रही।
बसंत पंचमी के अवसर पर परंपरानुसार आज सुबह 10 बजे गरूढ़ स्तंभ के सम्मुख पूर्ण विधि विधान से पूजा अर्चना के बाद त्रिशुल खम्ब को स्थापित किया गया। इस रस्म को डेरी गड़ाई रस्म कहा जाता है। डेरी गड़ाई विधान में ढाई सौ साल पुराने अष्टधातुओं से निर्मित ऐतिहासिक त्रिशूल खम्ब को मंदिर के सामने स्थापित किया गया। बस्तर की विश्व प्रसिद्ध फागुन मंडई की शुरूआत भी आज से हो गई है। इस रस्म के दौरान मंदिर के हेड जिला हरेंद नाथ ने मंदिर के प्रवेश द्वार के सम्मुख पूरे विधि विधान से पूजा अर्चना की तत्पश्चात त्रिशुल लगे लकड़ी के खम्ब को स्थापित किया गया। यह रस्म 12 लंकवार (गायता, सेठिया, पेरमा, समरथ, कतियार, चालकी, भोगिहार, पडिहार, माधुरी, तुडपा, बोडका, लाठुरा) की उपस्थिति में किया जाता है। त्रिशुल खम्ब गाडऩे से पूर्व उक्त स्थल की पूजा अर्चना की गई। तदोपरांत डेरी गड़ाई रस्म अदायगी की गई। आज शाम 4 बजे मंदिर से माईजी के छत्र व लाठ निकाली जाएगी। छत्र को नगर के मुख्य चौराहे पर लाकर रखा जाएगा जहां माईजी की छत्र को जवानों द्वारा हर्ष फायर कर सलामी दी जाएगी उसके उपरांत छत्र पर आम का बौर का मुकुट बनाकर पहनाया जाएगा। इस रस्म को आमा माउड रस्म के नाम से भी जाना जाता है। इस दौरान समस्त व्यापारी व नागरिकगणों द्वारा छत्र पर बौर चढ़ाकर पजा अर्चना किये जाने की परंपरा है। आमा बौर पूजा व डेढ़ी गड़ाई के साथ माघ शुक्ल पक्ष से फागुन पुर्णिमा तक चलने वाली दक्षिण बस्तर की विश्व प्रसिद्ध फागुन मंडई का आजाग हो चुका है। टेंपल कमेटी से मिली जानकारी अनुसार इस वर्ष फागुन माह की 16 तारीख से मंडई की शुरूआत होगी जो 28 मार्च तक चलेगा। डेरी गड़ाई रस्म के दौरान जिया परिवार से लोकेंद्र नाथ जिया, परमेश्वर नाथ जिया, शैलेंद्र नाथ जिया, गिरिश नाथ जिया, मंदिर से जुड़े त्रिनाथ पटेल, मुकुन्द ठाकुर, सुखराम नाग, बंशी, धनसिंग ठाकुर, धनीराम, शिवचंद समेत मंदिर के सभी सेवादार, मांझी, चालकी उपस्थित थे।
ढाई सौ साल पुराना है त्रिशूल
फागुन मेला के लिए स्थापित होने वाला तांबे का विशेष त्रिशुल ढाई सौ साल से ज्यादा पुराना है। मंदिर के पुजारी हरेंद्रनाथ जिया के मुताबिक महाराजा भैरमदेव ने राजस्थान के जयपुर से इसे मंगवाया था। तब से यही त्रिशूल स्थापित होता आ रहा है। त्रिशूल को देवी सती का प्रतीक माना गया है। लकड़ी के स्तंभ के सहारे इसे लगाया गया जाता है। हर साल इस त्रिशूल को बसंत पंचमी से फागुन मेला तक सामने स्थापित कर रखा जाता है, इसके बाद उतारकर मंदिर में सुरक्षित रख दिया जाता है।

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