छत्तीसगढ़

सूर्यपुत्र शनिदेव का जन्मोत्सव भक्तिभाव से मनाया

दंतेवाड़ा । शनि जयंती के पावन अवसर पर आज नगर के शनि मंदिर में सूर्यपूत्र भगवान श्री शनिदेव जी का अवतरण दिवस धुमधाम के साथ मनाया मनाई जा रही है। शनि जयंती के विशेष अवसर पर भगवान के अभिषेक, हवन पूजन, आरती व महाभंडारा में शामिल होने मंदिर में आज सुबह से ही भक्तों की अपार भीड़ लगी रही। प्रतिवर्ष की भांति इस वर्ष भी नगर के शनि मंदिर में भगवान शनिदेव की जयंती भक्तिभाव के साथ मनाई जा रही है। सांई भक्तों ने गुरूवार शाम 5 बजे ध्वजापूजन कर शनिदेवजी की आकर्षक झांकी गाजे-बाजे के साथ निकाली गई । पूरे नगर का भ्रमण पश्चात झांकी को देर शाम वापस मंदिर पहुंचाया गया जहां शनिदेवजी को भोग चढ़ाकर विधिवत पूजा आरती गइ गई। अवतरण दिवस पर आज सुबह 6 बजे शनिदेव महाराज की 32 मुखी ज्योति से सुशोभित महाआरती की गई तदउपरांत शनिदेव महाराज को दुध, दही, शहद, घी, पंचामृत एवं तील के तेल से अभिषेक किया गया। शनि जयंती के शुभ अवसर पर भगवान को तेलाभिषेक, तुलादान, छायादान किया गया। साथ ही सुबह 10 बजे मंदिर में सुंदर कण्ड पाठ का भी आयोजन हुआ। जिसके उपरांत हवन अनुष्ठान कर भगवान की पूजा का समापन हुआ। शनि जयंती पर भगवान की पूजा अर्चना के लिए आज सुबह से शनि मंदिर में भक्तों की अपार भीड़ थी। पूजन, हवन समाप्ति के बाद दोपहर 1 बजे से मंदिर समिति की ओर से शनि मंदिर परिसर में ही महाभण्डारा प्रसाद वितरण किया गया। महाप्रसाद पाने बड़ी संख्या में श्रद्धालु शनि मंदिर पहुंचे थे। मंदिर के मुख्य पुजारी विभूति भूषण मिश्र ने भगवान शनिदेव की जयंती पर संक्षिप्त परिचय देते बताया कि ज्येष्ठ मास की अमावस्या को भगवान श्री शनिदेव जी का अवतरण हुआ था। पौराणिक कथाओं के अनुसार इनका जन्म सूर्यदेव की दूसरी पत्नि छाया से हुआ है। शनिदेव जब मां के गर्भ में थे तब मां छाया भगवान शिव की घोर तपस्या में लीन थी। छाया के तप के प्रभाव से गर्भस्थ शिशु शनि भी जन्म लेने के पश्चात शिवभक्ति में लीन रहने लगे। एक दिन उन्होने सूर्यदेव से कहा कि पिताश्री मैं हर मामले में आपसे सात गुना ज्यादा रहना चाहता हूं, यहां तक कि आपके मंडल से मेरा मण्डल सात गुना अधिक हो, मुझे आपसे सात गुना अधिक शक्ति प्राप्त हो, मेरे वेग का कोई सामना न कर सके। चाहे वह देव, असुर, दानव या सिद्ध साधक ही क्यों न हो। आपके लोक से मेरा लोक सात गुना उंचा रहे। मुझे मेरे आराध्य देव भगवान श्रीकृष्ण के प्रत्यक्ष दर्शन हों और मैं भक्ति ज्ञान से पूर्ण हो जाऊं। पुत्र शनि की श्रद्धा निष्ठा से प्रसन्न होकर सूर्यदेव ने उन्हें अविमुक्त क्षेत्र काशी जाने और वहीं शिव की आराधना करने का परामर्श दिया। शनिदेव काशी गए और शिव आराधना करने लगे। तपस्या से प्रसन्न होकर शिव प्रकट हुए और उन्होने ग्रहों में सर्वोपरि स्थान तो दिया ही साथ ही मृृत्युलोक का न्यायधीश भी नियुक्त किया। उन्हें साढ़ेसाती और ढैया का वरदान दिया। साढेसाती की अवधि सत्ताईस सौ दिन और ढैया की अवधि नौ सौ दिन नियत की। तबसे लेकर आजतक शनिदेव की ढैया और साढेसाती को दंडस्वरूप समझा जाता है। इसका जीवन में शुभाशुभ प्रभाव व्यक्ति के आचरण और कर्म के अनुसार पड़ता है पिता सूर्य ने इन्हें मकर और कुंभ राशि के साथ साथ अनुराधा, पुष्य, और उत्तराभाद्रपद नक्षत्र का अधिपति भी बनाया। शनिदेव ने जिस शिवलिंग की स्थापना की थी वही आज नवें ज्योतिलिंग श्रीकाशीविश्वनाथ के नाम से जाने जाते हैं।

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