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छत्तीसगढ़

कम बोलने से अगर काम हो जाता है तो ज्यादा बोलने की जरूरत नहीं है: समता सागर

बिम्ब और प्रतिबिम्ब में केवल यही अंतर होता है की बिम्ब प्रत्यक्ष और प्रतिबिम्ब परोक्ष होता है: वीरसागर महाराज

डोंगरगढ़, 23 फरवरी। कम बोलने से आपका कार्य संपन्न हो रहा है तो अधिक न बोला जाये लेकिन यदि ज्यादा बोलना आवश्यक हो तो अवश्य बोलना चाहिये। उपरोक्त उदगार निर्यापक श्रमण समतासागर महाराज ने चंद्रगिरी तीर्थ से प्रात:कालीन धर्म सभा को सम्वोधित करते हुये व्यक्त किये।
उन्होंने कहा कि जैसे एक मां अपने बच्चों को समय – समय आवश्यकता अनुसार कभी कम कभी ज्यादा निर्देश दिया करती है उसी प्रकार आचार्य गुरूदेव अपने शिष्यों को कभी कम तो कभी ज्यादा तो कभी मौन रहकर के भी जब जैसी आवश्यकता हो कह दिया करते थे। मुनि ने कहा कि सन् 1992 में जब हमारा चातुर्मास विदिशा मध्यप्रदेश में चल रहा था उस समय गुरुदेव की दीक्षा के पच्चीस वर्ष पूर्ण होकर रजत जयंति मनाई जा रही थी तो हमने भी कुछ सोचा और आचार्य के प्रवचनों से उन सूत्रों को इकटठा करना शुरू किया। उसके पश्चात जबलपुर मडिय़ा जी, बीनाबारह, रामटेक, चातुर्मास के पश्चात विधान हुआ और जब हम अमरकंटक पहुंचे और आचार्य से निवेदन किया कि हमने आपके प्रवचनों के सूत्रों से संग्रह किया है। एक बार यदि आपकी नजर पड़ जाऐ तो ठीक रहेगा और इस संग्रह को आप कोई नाम दे दीजिये। गुरुदेव ने हमारी ओर देखा और कहा कि देख लो जैसा तुमको अच्छा लगे उसी में से निकाल लेना हम बड़े उत्साह के साथ आचार्य के पास गये थे। आचार्य ने जब कुछ नहीं कहा तो मन में निराशा तो हुई लेकिन दोपहर में आचार्य गुरूदेव ने बुलाया और कहा कि सुवह जो निवेदन किया गया था सामायिक के समय एक दोहा बना है उसमें से यदि तुम निकाल सको तो निकाल लेना तो आचार्य ने दोहा सुनाते हुये कहा बूंद बूंद के मिलन से, जल में गति आ जाये सरिता बन सागर मिले, सागर बूंद समाये इस प्रकार आचार्य के प्रवचनों का सार संग्रह सागर बूंद समाये की तैयारी विदिशा से प्रारंभ हुआ उसे हमने पांच खंडों में शुरु हुआ था। मुनि ने कहा कि आचार्य हमेशा अपने शिष्यों की जिज्ञासाओं की पूर्ती कर दिया करते थे।
निर्यापक श्रमण मुनि वीरसागर महाराज ने कहा की आचार्य विद्यासागर और आचार्य समयसागर में बहुत सारी समानतायें नजऱ आती है जैसे दोनों की चाल एक जैसी है, दोनों की मुस्कान एक जैसी है, दोनों के चेहरे एक जैसे है, दोनों मे गंभीरता एक जैसी है और दोनों के मूल गुण भी छत्तीस है। मुझे आचार्य विद्यासागर ने दीक्षा दी और शिक्षा आचार्य समयसागर ने दी। ऐसे बहुत से मुनि और आर्यिका हैं जिन्हें दीक्षा तो आचार्य विद्यासागर ने दी लेकिन शिक्षा के लिए वे आचार्य समयसागर के पास ही भेजते थे। जैसा और जितना आचार्य विद्यासागर कहते कहते थे आचार्य समयसागर वैसा और उतना ही पढ़ाते थे। आज हम प्रत्यक्ष में भगवान के दर्शन नहीं कर सकते इसलिए जिन बिम्ब में परोक्ष रूप से करते हैं। बिम्ब और प्रतिबिम्ब में केवल यही अंतर होता है की बिम्ब प्रत्यक्ष और प्रतिबिम्ब परोक्ष होता है। आज आचार्य हमारे बिच नहीं है लेकिन उनकी प्रतिकृति विद्या निधि आचार्य समयसागर हमारे पास है। उनकी गंभीरता, तत्व ज्ञान, पढ़ाने की शैली सब कुछ आचार्य के समान ही लगती है।

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