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छत्तीसगढ़

चार दिवसीय बैसाखी पर्व को सिख समुदाय ने हर्षोल्लास से मनाया

जगदलपुर । सिख धर्म के दसवे गुरु, गुरु गोविंद सिंह जी ने 13 अप्रैल 1699 को खालसा पंथ की स्थापना की थी और पांच प्यार को अमृत पिलाया था । पंज प्यारे उन पाँच सिखों को कहते हैं, जो गुरु गोविन्द सिंह के आह्वान पर धर्म की रक्षा के लिये अपना-अपना सिर कटवाने के लिये सहर्ष तैयार हुए थे। पंच प्यारे ही सम्पूर्ण सिख समाज का सामूहिक प्रतिनिधित्व करते हैं।
बैसाखी पर्व फसल के पकाने, पारंपरिक रीति रिवाज और सिख समुदाय के समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का उत्सव है। इस महीने में रबी की फसल पककर पूरी तरह से तैयार हो जाती है और उनकी कटाई भी शुरू हो जाती है। इसीलिए बैसाखी को फसल पकने और सिख धर्म की स्थापना के रूप में मनाया जाता है।
श्री गुरूसिंघ सभा जगदलपुर के अध्यक्ष स्वर्ण सिंह एवं सचिव बलविंदर सिंह हमारे संवाददाता को बताया कि शहर के शांति नगर स्थित गुरुद्वारा में 11 अप्रैल से 14 अप्रैल तक बैसाखी पर्व के उपलक्ष में चार दिवसीय महान गुरमत समागम, अमृत संचार कार्यक्रम का आयोजन किया गया था। जिसकी शुरूवात अखंड पाठ से हुआ। जिसकी समाप्ति 13 अप्रैल को हुई । इसी दिन खालसा पंथ की स्थापना हुई थी, जिसे सिख समाज बैसाखी पर्व के रूप में मनाता है । तीन दिन तक अखंड पाठ के साथ साथ दिल्ली के गुरु घर से आए कीर्तनी भाई जसप्रीत सिंघ ने संगत को गुरु की वाणी सुन कर निहाल किया । साथ ही गुरू का लंगर को सिख समुदाय के साथ अन्य धर्म के लोगों ने भी ग्रहण किया। अंतिम दिन 14 अप्रैल को भोपाल से पधारे पंज प्यारेओ ने सिख समाज के 84 लोगों (इसमें पुरुष, महिला व बच्चे शामिल है) को गुरु का अमृत पिलाकर सिख धर्म के सिद्धांतों पर चलना बताया । जगदलपुर शहर में यह पहला अवसर है जब सिख समाज के इतने सारे लोगों ने गुरू का अमृत ग्रहण किया। इस के साथ ही चार दिवसीय वैसाखी पर्व भक्तिमय माहौल में संपन्न हुआ।
पंज प्यारे का चुनाव कैसे हुआ
ऐसा माना जाता है कि जब मुगल शासनकाल के दौरान जब बादशाह औरंगजेब का आतंक बढ़ता ही जा रहा था। तब उस समय सिख धर्म के गुरु गोबिन्द सिंह ने बैसाखी पर्व पर आनन्दपुर साहिब के विशाल मैदान में सिख समुदाय के लिए एक विशाल आमसभा और तख्त के पीछे एक तम्बू लगाया गया। उस समय गुरु गोबिन्द सिंह नंगी तलवार लिए मंच पर पहुँचे और उन्होंने ऐलान किया मुझे एक आदमी का सिर चाहिए। क्या आप में से कोई अपना सिर दे सकता है? यह सुनते ही वहा उपस्थित सिख दयासिंह (पूर्वनाम दयाराम) नामक एक व्यक्ति आगे आया जो लाहौर निवासी था और बोला आप मेरा सिर ले सकते हैं। गुरुदेव उसे पास ही बनाए गए तम्बू में ले गए। कुछ देर बाद तम्बू से गुरु गोबिन्द सिंह बाहर आए, नंगी तलवार से ताजा खून टपक रहा था। उन्होंने फिर ऐलान किया मुझे एक और सिर चाहिए। मेरी तलवार अभी प्यासी है। इस बार दूसरा सिख धर्मदास (उफऱ् धरम सिंह नागर) आगे आये, जो मेरठ जिले के सैफपुर करमचंदपुर (हस्तिनापुर के पास) गाँव के निवासी थे। यह जाति से गुर्जर थे। गुरुसाहिब उन्हें भी तम्बू में ले गए। फिर बाहर आकर गुरु गोबिन्द सिंह ने अपनी तलवार की प्यास बुझाने के लिए एक और व्यक्ति के सिर की माँग की। इस बार जगन्नाथ पुरी के सिख हिम्मत राय (उफऱ् हिम्मत सिंह) खड़े हुए। गुरुजी उन्हें भी तम्बू में ले गए। गुरुसाहिब पुन: बाहर आए और एक और सिर की माँग की तब द्वारका के सिख युवक मोहकम चन्द (उफऱ् मोहकम सिंह) आगे आए। इसी तरह पाँचवी बार फिर गुरुसाहिब द्वारा सिर माँगने पर बीदर निवासी साहिब चन्द सिर देने के लिए आगे आये। मैदान में इतने सिक्खों के होने के बाद भी वहाँ सन्नाटा पसर हुआ था, सभी एक-दूसरे का मुँह देख रहे थे। किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था। तभी तम्बू से गुरु गोबिन्द सिंह जी केसरिया बाणा पहने पाँच सिक्ख खालसा के साथ बाहर आए। पाँचों नौजवान वही थे, जिनके सिर के लिए गोबिन्द सिंह तम्बू में ले गए थे। गुरुसाहिब और पाँचों नौजवान मंच पर आए, गुरुसाहिब तख्त पर बैठ गए। पाँचों नौजवानों ने कहा गुरुसाहिब हमारे सिर काटने के लिए हमें तम्बू में नहीं ले गए थे, बल्कि वह हमारी परीक्षा थी। तब गुरुसाहिब ने वहाँ उपस्थित सिक्खों से कहा आज से ये पाँचों मेरे पंज प्यारे हैं। इस तरह सिख धर्म को पंज प्यारे मिले ।

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