पितरों के प्रति श्रद्धा का महापर्व पितृपक्ष प्रारंभ
दंतेवाड़ा । सनातन धर्म में पितृपक्ष का विशेष महत्व है। यह भाद्रपद की पूर्णिमा तिथि से शुरू होकर अमावस्या तक चलता है। इस दौरान पितृगण मृत्यु को प्राप्त हुए अपने परिजनों को याद कर उनकी आत्मा की शांति के लिए तर्पण, श्राद्ध और पिंडदान जैसे कई अनुष्ठान कर मोक्ष की कामना करते हैं। इसके अलावा मान्यता है कि पितृपक्ष में दान करने से पितरों की तृप्ति होती है और वह अपने वंशजों को आर्शीवाद प्रदान करते हैं। पितृपक्ष अपने पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने, उनका स्मरण करने और उनके प्रति श्रद्धा अभिव्यक्त करने का महापर्व है। मान्यता है कि पितृपक्ष के दौरान पूर्वजों की आत्माएं धरती पर आती हैं, इसलिए उनके वंशज उन्हें संतुष्ट करने के लिए विभिन्न अनुष्ठान करते हैं। पितृपक्ष से जुड़ी कई कहानियां भी प्रचलित हैं।
भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन कृष्णपक्ष अमावस्या तक कुल 15 दिनों का होता है पितृपक्ष। इस दौरान पितृगण अपने पितरों को याद करते हैं। पितृपक्ष में पितरों के लिए तर्पण, पिंडदान, श्राद्ध, ब्राम्हण भोज आदि अनुष्ठान किया जाता है, साथ ही पितृपक्ष की तिथियों पर पितरों की पूजा करके उनको तृप्त किया जाता है। हिन्दु धर्म में पितृपक्ष के दिनों का बहुत ही खास महत्व है। हमारे परिवार के जिन पूर्वजों का देहांत हो चुका है उन्हें हम पितृ मानते हैं। हिन्दु पंचाग के अनुसार पितृपक्ष का आरंभ आज 18 सितंबर 2024 से हो रहा है जो 2 अक्टूबर आश्विन मास की अमास्या तिथि तक चलेगा। आज पहला दिन पितृगणों ने अपने पितरों को याद कर पुर्णिमा तिथि का श्राद्ध तपर्ण कर उन्हें याद किया। पितरों की शांति के लिए हर साल भाद्रपद मास की पूर्णिमा से लेकर आश्विन मास की अमावस्या के काल तक पितृपक्ष श्राद्ध होते हैं। मान्यता है कि इस दौरान कुछ समय के लिए यमराज पितरों को आजाद कर देते हैं ताकि वह अपने परिजनों से धरती पर आकर श्राद्ध ग्रहण कर सकें। धर्म ग्रन्थों के अनुसार जो भी वस्तु उचित काल या स्थान पर पितरों के नाम उचित विधि द्वारा ब्राम्हणों को श्रद्धापूर्वक दान दिया जाए वह श्राद्ध कहलाता है। श्राद्ध के माध्यम से पितरों की तृप्ति के लिए भोजन पहुंचाया जाता है। पिण्ड के रूप में पितरों को दिया गया भोजन श्राद्ध का अहम हिस्सा होता है। पितृपक्ष में पितरों के निमित्त पिंडदान करने की परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है कुछ लोग काशी और गया जाकर अपने पितरों का पिंडदान करते हैं। पितृपक्ष के दौरान पितरों के निमित्त विधिपूर्वक जो कर्म श्रद्धा से किया जाता है उसे श्राद्ध कहते हैं। मान्यता है कि पितरों का विधि अनुसार श्राद्ध करने से पितृगण प्रसन्न होकर अनुष्ठाता की आयु बढा देते हैं साथ ही धन, धान्य, पुत्र, पोैत्र तथा यश प्रदान करते हैं। पंडितों के अनुसार जिस कर्म विशेष में दुध, घी, तथा मधु से युक्त सुसंस्कृत उत्तम व्यंजन को श्रद्धापूर्वक पितरों को भेंट किया जाए, वही श्राद्ध है। ज्योतिष मान्यताओं के आधार पर सूर्यदेव जब कन्या राशि में गोचर करते हैं तब हमारे पितर अपने पुत्र पौत्रों के यहां विचरण करते हैं। विशेष रूप से वे तर्पण की कामना करते हैं। श्राद्ध से पितृगण प्रसन्न होते हैं। पितरों के तर्पण, हवन, अनुष्ठान करने से हर प्रकार का कष्ट और बाधा से भी मुक्ति मिलती है। पितृगण श्राद्ध करने वालों को सुख समृद्धि, सफलता, आरोग्य और संतान रूपी फल देते हैं। ऐसी मान्यता है कि जो लोग पितृपक्ष में पितरों का तर्पण नहीं करते या कराते, उन्हें पितृदोष लगता है और श्राद्ध के बाद ही पितृदोष से मुक्ति मिलती है। श्राद्ध से पितृ को शांति मिलती है, वे प्रसन्न रहते हैं उनका आर्शीवाद हमारे परिवार को प्राप्त होता है। पंडितों के अनुसार कौए को पितरों का रूप माना जाता है। मान्यता है कि श्राद्ध ग्रहण करने के लिए हमारे पितर कौए का रूप धारण कर नियत तिथि पर दोपहर के समय हमारे घर आते हैं। अगर उन्हेंं श्राद्ध नहीं मिलता है तो वह रूष्ट हो जाते हैं। इस कारण श्राद्ध का प्रथम अंश कौवों को दिया जाता है। पितृपक्ष में गरीबों और ब्राम्हणों को भी अपने सामर्थयअनुसार दान करना चाहिए। इस दौरान कोई भी मांगलिक व शुभ कार्य नहीं करना चाहिए। पूरे पितृपक्ष के दौरान पितृस्त्रोत का करना उत्तम फलदायी माना गया है।